विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
सभी अलंकरणों से ऊपर विराजमान कला ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख का देहावसान 13जनवरी 1998 को रात्रि लगभग 11 बजे हुआ था । उनकी पार्थिव देह का दाह - संस्कार 15 जनवरी ( मकर संक्रांति के दूसरे दिन ) को हुआ था । हमारी परंपरा के अनुसार दाह - संस्कार वाले दिन को ही अवसान - दिवस मानते हैं और उसी दिन से तीज नहान और दशगात्र के दिन की गिनती करते हैं । कुछ लोग दाऊजी की पुण्यतिथि 14 जनवरी को मानते हैं और कुछ लोग 13 जनवरी को । मुझे दोनों ही तिथियाँ स्वीकार हैं । किसी एक पर उज़्र करने का कोई औचित्य मैं नहीं समझता । दाऊजी की पुण्यतिथि पर कुछ स्मृति - पुष्प अर्पित करने के नैतिक दायित्व के तहत मैं इस बार कुछ नितांत निजी प्रसंगों के साथ दाऊजी को याद करने की इजाज़त आप सबसे माँगता हूँ । चंदैनी गोंदा में मैंने अपनी एक बात सबसे छिपाकर रखी। अपने मित्रों से भी ज़िक्र कर सकने लायक साहस मैं कभी जुटा नहीं पाया। कारण - मेरा आत्मनाशक संकोच और आत्मघाती विनम्रता। मेरे मित्रगण - प्रमोद, लक्ष्मण, सन्तोष टांक, भैयालाल, केदार आदि किसी को भी भनक तक नहीं लगने दी मैंने। सुरेश भैया से साझा करने की तो सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि