विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
राजिम मेला के संबंध में पूर्व में संजीत त्रिपाठी जी चित्रमय विवरण प्रस्तुत कर चुके हैं । हम अपने पाठकों को एक व्यंगकार के नजरिये से इस मेला को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं । चित्रों के लिए संजीत त्रिपाठी जी के पोस्ट एवं इस वेब साईट 1 व 2 , एवं विकीपीडिया , व तपेश जैन जी के ब्लाग का अवलोकन करें । राजिम मेला और हमारी आस्था - कुछ बदलते सन्दर्भ में विनोद साव यह सही है कि छत्तीसगढ़ में राजिम मेला का जो वैभवपूर्ण इतिहास रहा है वह किसी दूसरे मेले का नहीं रहा। माघी पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रोज रोज भरे जाने की जो एक मैराथन पारी इस मेले में संपन्न होती थी इसका कोई दूसरा जोड़ न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि इसके पड़ोसी राज्यों में भी देखने में नहीं आता था। राजिम का अपना पौराणिक इतिहास तो है ही लेकिन यहां भरा जाने वाला मेला अपनी विशालता के कारण विशिष्ट रहा है। महानदी की फैली पसरी रेत पर नदी के बीचोंबीच भरने वाला यह मेला अपनी कई विशेषताओं के कारण लोक में सबसे अधिक मान्य रहा है। बरसों तक राजिम मेला देखने जाना एक उपलब्धि मानी जाती रही है। राजिम के आसपास रहने वाले जन भी अपने रिश्तेदारों