विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
14. हमारे विश्वास , आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक , कितने अन्ध-विश्वास ? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है ? पक्षियो और जानवरो से सम्बन्धित ऐसी कई तरह की बाते प्राचीन ग्रंथो मे मिलती है। जैसे दशहरे के दिन नीलकंठ को देखना शुभ माना जाता है। देश के मध्य भाग मे मैना को देखने पर तरह-तरह की बाते की जाती है। उनमे से एक है मैना के दिखने पर चोर-डाकुओ से धन हानि की बात। इन बातो का कोई वैज्ञानिक आधार नजर नही आता है। आजकल जो तंत्र-मंत्र की नयी पुस्तके आ रही है उसमे इस तरह की बातो को प्रकाशित किया जा रहा है। जब मैने प्राचीन ग्रंथो को खंगाला तो मुझे मैना और अन्य पक्षियो से जुडी ऐसी सैकडो बाते पता चली। इन्हे पढकर यह बात भी मन मे आती है कि कही इसके गहरे मायने तो नही है। हो सकता है हमारे बुजुर्गो के पास इसके कारण रहे हो और पीढी दर पीढी बाते तो आती रही पर राज नही आ पाये। मै यह बात इसीलिये भी कह पा रहा हूँ क्योकि बिल्ली के रास्ता काटने पर उस ओर न