विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1- 2 - 3- 4 (अंतिम किश्त) कला व संस्कृति के विकास में हमारे लोक कलाकारों नें उल्ले खनीय कार्य किये हैं इसके नेपथ्य में अनेक मनीषियों नें सहयोग व प्रोत्साहन दिया है किन्तु वर्तमान में इसके विकास की कोई धारा स्पष्ट नजर नहीं आती जबकि हमारी संस्कृति की सराहना विदेशी करते नहीं अधाते, जापान व जर्मनी के लोग हमारे पंडवानी का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और हम स्वयं थोथी अस्मिता का दंभ भरते हुए अपनी लोक शैली तक को बिसराते जा रहे हैं । शासन के द्वारा विभिन्न मेले मडाईयों व उत्सवों का आयोजन कर इसे जीवंत रखने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु हमें इसे अपने दिलों में जीवंत रखना है । डॉ. हीरालाल शुक्ल जी इस संबंध में गहराते संकट को इस प्रकार व्यक्त करते हैं - ’ रचनात्मकता के नाम पर आज जो हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं, वह सृजन क्षमता नहीं, पश्चिम की टोकरी में भरा हुआ कबाड है, जिसको आधुनिक बाजार किशोर संवेदनाओं को उत्तेजित कर संस्कृति के नाम पर बेंच रहा है । कहीं ऐसा न हो कि छत्तीसगढी नाचा सीखने के लिए हमें पश्चिम के किसी व