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जुलाई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मानसून

मानसून के स्‍वागत में मानसून शब्द मूलतः अरबी भाषा के ‘मौसिम’ से बना है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मौसम या ऋतु निकाला जा सकता है। मानसूनी हवाएं साल के छः माह हिन्द महासागर से भारत की ओर तथा साल के बाकी छः माह में इससे ठीक विपरीत चलती है, जिसका लाभ अरब सागर में पालदार नौकाओं से चलने वाले उन व्यापारियों को होता था, जिन्होंने इसका नामकरण किया था पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानसून सिर्फ समुद्री हवा का झोंका भर नहीं, यह पानी की वह कहानी है जिससे हमारी जिन्दगानी का शायद ही कोई पहलू अछूता हो। मानसून का नामकरण यद्यपि अरबों ने किया पर इसकी खोज ईस्वी सन् 48 में हिप्पोलस ने की थी। यूनानियों को सम्भवतः इससे पहले भी मानसूनी हवाओं की दिशा व समय की जानकारी थी। प्रायद्वीपी भारत के बंदरगाह नगरों में ईस्वी पूर्व की यूनानी मुद्राएं भी बड़ी संख्या में मिली है, जिससे लगता है कि उस समय भी भारत-यूनान के बीच अच्छा खासा व्यापार हो रहा था जो मानसूनी हवाओं की सहायता से ही सम्भव था। ईस्वी पूर्व 326 में सिकन्दर ने भारत से वापस लौटते हुए अपने मित्र व सेनापति नियार्कस को सिन्धु नदी के मुहाने से दजला-फरात नदी तक

छत्‍तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्‍दकोश : खुली चर्चा होनी चाहिए

विधान सभा द्वारा तैयार एवं राजभाषा आयोग द्वारा प्रकाशित छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश पर उठते सवाल नें प्रत्येक छत्तीसगढिया के कान खडे कर दिये हैं. मीडिया में उडती खबरें यह बता रही है कि इसमें संकलित कई शब्दों के अर्थ ग्राह्य नहीं हैं. किसी भी ग्रंथ पर कुछ लिखने के पहले उसका अवलोकन व अध्ययन आवश्यक है इस लिहाज से यह प्रशासनिक शब्दकोश हमारे पास अभी नहीं है किन्तु माध्यमों से जो शब्दार्थ सामने आ रहे हैं उससे प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि शब्दकोश जल्दबाजी में छाप दी गई है. ऐसे समय में जब छत्तीसगढ़ी राजभाषा के मानकीकरण एवं शब्दों के दस्तावेजीकरण की आवश्यकता पर सभी विद्वान बल दे रहे है उसी समय में राजभाषा विभाग द्वारा यह प्रशासनिक शव्दावली प्रकाशित की गई है और आगे की कड़ियों के प्रकाशन की योजना भी है. आरम्भिक कड़ी में ही गलतियां सामने आ रही है इसलिए पहले यह आवश्यक है कि इस पर प्रदेश स्तरीय विमर्श हो. समाचार पत्रों में इसमें संकलित शब्दों के संबंध में जो समाचार आ रहे है उसको देखते हुए और इस शब्दकोश के निर्माण की प्रक्रिया के संबंध में पढते हुए, यह तो स्पष्ट है कि इन दोनों में सुधार की

साठवें जन्म दिन पर हार्दिक शुभकामनाऍं :

हमारे पारिवारिक हीरो - बड़े भैया प्रमोद साव - विनोद साव बड़े भैया साठ बरस के हो गए, उनकी षष्ठपूर्ति मनायी जा रही है। तब पता चला कि मैं भी संतावन बरस का हो गया हूँ। अपनी उम्र का एहसास तब होता है जब अपने आसपास के लोग साठ बरस के हो जाते हैं। बड़े भैया के बाद मैं था और मैंने ही सबसे पहले उन्हें भैया कहना शुरु किया था, बाद में मुझसे छोटे भाई-बहनों ने मुझे भैया कहना शुरु किया तब भैया बड़े भैया हो गए, तब से यही संबोधन उनके लिए ज्यादा प्रयुक्त होता है। भैया जिनका नाम प्रमोद साव है, वर्तमान में गुरुनानक उच्चतर माध्यमिक शाला, दल्ली-राजहरा के लोकप्रिय प्राचार्य हैं। हमारे पिता अर्जुनसिंह साव भी छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्कूलों के यशस्वी प्राचार्य थे। कोई भैया से पूछता है कि ‘आजकल आप क्या कर रहे हैं?’ तो वे कह उठते हैं कि ‘बस... अपने पिता के नक्शे कदम पर चल रहा हूँ।’ युवावस्था में प्रमोद साव बाबूजी की तरह श्याम सलोने भैया भी आकर्शक व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। उनकी ऑंखों में कुछ ऐसा सम्मोहन रहा है कि इस सम्मोहन का शिकार होने वालों की उन्हें कमी नहीं रही है। हमारे भरे पूरे परिवार म

संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष : 2

बच्चों के प्रिय हीरो थे दारासिंह - विनोद साव   भारतीय सिनेमा में दारासिंह का भी एक जमाना रहा जब वर्ष 1960 से 1970 के बीच फिल्मों में उनकी मांग खूब थी। वे अखाड़े से आए हुए पहलवान थे। उन्होंने फ्री-स्टाइल कुश्ती की अपनी स्वतंत्र शैली बना ली थी जिसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिल गई थी और वे इस कुश्ती के एक अपराजेय नायक थे। उन्हें ता-उम्र कोई पराजित नहीं कर सका। यह कभी नहीं सुना गया कि दारासिंह किसी दंगल में हार गए हों। वे कुश्ती की हर प्रतियोगिता में हमेशा विजय प्राप्त करते थे। तब अपने आप को बलवान समझने वाले आदमी के लिए यह मुहावरा भी चल पड़ा था कि ‘अपने आप को बड़ा दारासिंह समझता है।’ दारासिंह कुश्ती के दूसरे पहलवानों से भिन्न थे उनका कद साढ़े छह फुट का था। उनका रंग एकदम गोरा था। बाल घुंघराले थे और नाक-नक्श एकदम तराशे हुए से। उनके रोम रोम से उनकी चुस्ती फुर्ती एकदम साफ झलका करती थी। कुश्ती के रींग में वे किसी चीते की तरह उछल कर अपने प्रतियोगी पर वार किया करते थे। तब हम लोग प्रायमरी मिडिल स्कूल के छात्र थे और वे कई बार दुर्ग भिलाई में कुश्ती की प्रतियोगिता में भाग लेने आया करते