विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
यों तो मैंने लगभग आठ-नौ वर्षों पहले महाकौशल कला विथिका में सुश्री साधना ढांढ की कृतियों की प्रदर्शनी देख रखी थी, पर उस वक़्त मुझे कतई गुमां न था कि ये कृतियां अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता से पीडित किसी महिला द्वारा रचीं गयी हैं। मुझे जब यह ज्ञात हुआ कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर रोल माॅडल अवार्ड मिला है, तो मैं अपने आपको उनसे मिलने से रोक नहीं पाया। वहां कुछ पत्रकार बंधु पूर्व से ही विराजमान थे। वे भी उनसे ही मिलने आये हुए थे। साधना जी को देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता के बावजूद उन्होंने अपने अन्दर के कलाकार को निःशक्त नहीं होने दिया है। उनके अन्दर के कलाकार की जिजीविषा देखते ही बन रही थी। वे हमारी उपस्थिति से पूरी तरह अनभिज्ञ अपनी कृतियों को उकेरने में मग्न थीं और हम उन्हें विभिन्न तरह के क़ाग़ज़ों पर उनके शिल्प को आकार लेते हुए, खो जाने की हद तक तन्मय होकर देख रहे थे। वहां पर उपस्थित उनकी बधिरों की भाषा में समझाने वाली शिक्षिका ने उन्हें हल्के से छुआ और उनकी तन्द्रा टूटी। फिर उन्होंने हमारी ओर देखा उनकी आंखें आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। संभवतः मैंने