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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

संतन को कहाँ सीकरी सों काम ?

-छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 12 से 14 दिसम्बर को पुरखौती मुक्तांगन में प्रस्तावित 'रायपुर साहित्य महोत्सव' पर शेष-
अब न कुम्भनदास रहे न अकबर बादशाह न फतेहपुर सीकरी। अब के कुम्भनदासों को हर पल अगोरा रहता है कि कब सीकरी से बुलावा आए और वे दौड़ पड़े। बिना अपने पनही के टूटने या घिसने की परवाह किए। इसमें शर्त बस इत्ती सी है कि, सीकरी तक आने जाने के लिए पुष्पक और असमान्य सम्मानजनक मानदेय। फ़ोकट में तो कोई भिस्ती भी न जाय। अब रही बात अब के रियाया और दरबारियों की, तो वे भी तभी इन कुम्भंदासों के आह में ताली बजाने आयेंगे जब कोई चतुर सेनापति बौद्धिक रणनीति अपनाएगा।

मौजूदा हालत में कुम्भंदासों की टीम और रियाया दोनों, सीकरी के आयोजन के प्रति उत्सुक हैं। सीकरी के चाहरदीवारी में रहने वाले बौद्धिक जो रियाया और दरबारी की परिभाषा से अपने आप को, परे समझते हैं उनके लिये ये समय मंथन का है। सरकारी है तो क्या ये असरकारी होगा? असरकारी होता तो क्या प्रभावकारी होगा? इन प्रश्नों की गठरी बांधने के बजाय, इस सरकारी साहित्यिक आयोजन को हम फैंटेसी मान लें।

भक्तजनों! साहित्य की दुनिया में आयोजनों का बड़ा क्रेज रहा है। आपको तो मालूम ही है कि, आयोजनो के चकाचौंध में लेखन गौड़ हो जाता है लेखक महत्वपूर्ण हो जाता है। आयोजनों की आंच दूर तक जाती है जिसमें कई कई परत के पूर्वाग्रह पकते हैं। इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए साहित्यकार बोधित्सव नें फेसबुक मे एक बार लिखा कि, लोकार्पण शब्द कभी कभी तर्पण की तरह सुनाई देता है.. और विमोचन लुंचन की तरह .. पुरस्कार तिरस्कार की तरह और .. बडा कवि सड़ा कवि ध्वनित करता है। ऐसे समय में जब एक जिम्मेदार साहित्यकार ये कहता है तब साहित्य का छद्म अनावृत हो जाता है, इनके कथनी और करनी में फ्रिक्शन नजर आने लगता है। राज्य का ताजा इतिहास गवाह है कि, सेनापति के खून सने हांथो से नेवता नई झोकेंगे कहने वालों की भीड़ सेनापति को सलाम ठोकते नजर आते हैं और हमारे जैसे दू दत्ता बछवा को चूतिया बनाते है। इसीलिए कलम की जनपक्षधरता में संदेह होने लगता है। छद्म जनपक्षधर कलमकारों और संदेह का लाभ उठाने वाले साहित्यकारों की पहचान तय करना आवश्यक हो जाता है। ऐसे कलमकारों, साहित्यकारों और जन पैरोकारों से साक्षात्कार के लिए हमें आयोजन को बढ़ावा देना चाहिए।

रही बात आयोजन में राज्य के दखल की तो, प्लेटो, अरस्तु और सुकरात के समय मे भी राजाओं का अस्तित्व दखलकारी रहा। किंग एडिबस रैक्स का फितूर कलम पर हावी रहा। साहित्य का वैचारिक पक्ष जहर के प्यालों में उबलता रहा। ऐसे ही समय मे सुकरात ने अपनी बात बड़ी दृढ़ता से रखी, उन्होंने कहा अपनी मूर्खता का जिसे ज्ञान है वही बुद्धिमान है। इसीलिए मै अपनी सर्वोच्च मुर्खता का भान और मान रखते हुए इस साहित्य उत्सव का स्वागत करता हूँ।

तमंचा रायपुरी
(अपच बौद्धिकता का रायता बिखराते हुए)

टिप्पणियाँ

  1. ये जयपुर / बीकानेर टाइप कुछ है क्या जिसमें शासकीय प्रायोजन है?

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  2. साहित्यकारो को झकझाोरता हुआ आलेख, आपके द्वारा उठाये गये सवाल निश्चित ही मनन करने योग्य है ।

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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