विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
- विनोद साव भिलाई आर्ट्स क्लब ने इस शहर को चित्रों और रंगों से भर दिया है. पिछले महीने भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का सार्थक आयोजन किया गया था और इस बार अनिल कामड़े के छायाचित्रों की प्रदर्शनी लगवा दी. नेहरू आर्ट गैलरी के सामने ही अनिल मिल गए. अपने चिर-परिचित हंसमुख चेहरे के साथ. जन संपर्क विभाग के फोटो विडियो सेक्शन में एक समय तीन कलाकार ऐसे सहभागी थे जो दुर्ग से एक साथ आते और जाते रहे – हिमांशु मिश्रा, प्रमोद यादव और अनिल कामड़े. ये तीनों दुर्ग में गया नगर के आसपास लगभग एक ही इलाके में रहे. इन तीनों कलाकारों में जबर्दस्त यारी थी और इनके कारण जन संपर्क विभाग में याराना माहौल बना रहता था. इनमें विलक्षण विडियोग्राफर हिमांशु मिश्रा हबीब तनवीर के ‘सेट’ पर कार्य करते हुए दुर्घटनाग्रस्त होकर असमय ही यारों के बीच से चले गए. हिमांशु के पास किसी फिल्म के छायाकार जैसी समृद्ध दृष्टि और तकनीक थी. उनकी बनाई विडियो फिल्मों ने छत्तीसगढ और इसके बाहर भी अपनी छाप छोड़ी थी. साहित्य में कदम रखने से पहले मैंने भी कुछ विडियो फीचर फिल्मों के निर्माण में दांव पेंच आजमाए थे. हिमांशु के साथ मिलकर ‘पाट